शास्त्रीय प्रमाण
संस्कार-विधि और स्मृतियों में यह नियम निम्नलिखित रूप से वर्णित है —
(1) सामान्य धार्मिक कार्यों में पत्नी की स्थिति:
“यज्ञे होमे व्रते दाने स्नान-पूजादि कर्मणि।
देवयात्रा-विवाहेषु पत्नी दक्षिणतः शुभा॥”
अर्थात — यज्ञ, होम, व्रत, दान, स्नान, पूजा, देवयात्रा और विवाह जैसे सभी कार्यों में पत्नी का पति के दाहिने ओर बैठना शुभ माना गया है।
(2) अत्रि स्मृति के अनुसार:
“जीवद्भर्तरि वामांगी मृते वापि सुदक्षिणा।
श्राद्धे यज्ञे विवाहे च पत्नी दक्षिणतः सदा॥”
अर्थात — जब पति जीवित हों, तो पत्नी वामांगी कहलाती है, परंतु श्राद्ध, यज्ञ और विवाह जैसे कार्यों में वह सदा दाहिनी ओर बैठती है।
(3) संस्कार गणपति कर्मठ गुरु के अनुसार:
“वामे सिन्दूरदाने च वामे चौव द्विरागमे।
वामे सदैव शय्यायां भवेज्जाया प्रियार्थिनी।
सर्वेषु शुभकार्येषु पत्नी दक्षिणतः सदा॥”
अर्थ — सिन्दूरदान और शय्या के समय पत्नी को बाईं ओर रहना चाहिए, किंतु अन्य सभी शुभ कार्यों में दाहिनी ओर बैठना ही उचित है।
(4) लघु आश्वलायन सूत्र में कहा गया है:
“दम्पती तु व्रजेयातां होमार्थं चौव वेदिकाम्।
वरस्य दक्षिणे भागे तां वधूमुपवेशयेत्॥”
अर्थ — जब दंपती होम या वेदिक कार्य के लिए बैठें, तो वधू को वर के दाहिने भाग में आसन देना चाहिए।
(5) गोभिल गृह्यसूत्र का मत:
“पूर्वे कटान्ते दक्षिणतः पाणिग्राहस्योपविशति।
दक्षिणेन पाणिना दक्षिणमंसमन्वारभ्य याज्याहुतिर्जुहोति॥”
अर्थ — पत्नी को पति के दाहिने ओर बैठना चाहिए और याज्ञिक क्रिया में दाहिने हाथ से ही आहुति दी जानी चाहिए।
किन-किन अवसरों पर पत्नी दाहिनी ओर बैठे
धर्मशास्त्रों के अनुसार धर्मपत्नी को पति के दाहिने ओर निम्नलिखित अवसरों पर बैठना चाहिए —
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यज्ञ, वेद यज्ञ, गीता यज्ञ और भागवत कथा जैसे धार्मिक आयोजनों में।
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विवाह संस्कार के दौरान सिन्दूरदान को छोड़कर सभी पूजन कार्यों में।
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श्राद्ध कर्म, व्रत-उद्यापन, चतुर्थी पूजन, हवन, देवपूजा आदि सभी संस्कारों में।
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नामकरण, अन्नप्राशन, कन्यादान जैसे घरेलू और वैदिक संस्कारों में।
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दान, स्नान, पूजा और देवयात्रा जैसे शुभ कार्यों में भी पत्नी का दाहिनी ओर बैठना शुभ माना गया है।
किन कार्यों में पत्नी बाईं ओर रहे
शास्त्रों के अनुसार, कुछ विशेष अवसरों पर पत्नी को पति के बाईं ओर बैठना चाहिए —
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सिन्दूरदान के समय।
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शयन या दाम्पत्य-संबंध से जुड़े अवसरों पर।
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पूज्य जनों के चरण धोने या आशीर्वाद ग्रहण करने के समय भी पत्नी का स्थान बाईं ओर माना गया है।
धर्मशास्त्रों की दृष्टि से पति-पत्नी का स्थान केवल सामाजिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक एकता का प्रतीक है। पति के दाहिने ओर धर्मपत्नी का बैठना इस बात का संकेत है कि वह उसके साथ धर्म, कर्म और कर्तव्य में सहभागी है।
इस व्यवस्था के पीछे केवल परंपरा नहीं, बल्कि एक गहन वैदिक दर्शन निहित है — जहाँ पुरुष ‘कर्त्ता’ और नारी ‘शक्ति’ के रूप में साथ बैठकर यज्ञ, पूजा और धर्मकर्म को पूर्णता प्रदान करते हैं।
इस प्रकार, शास्त्रों में निर्दिष्ट सभी प्रमाण यही सिद्ध करते हैं कि सभी शुभ और धार्मिक कार्यों में धर्मपत्नी को पति के दाहिने ओर बैठना ही शास्त्रीय और शुभ माना गया है।